प्रारब्ध - कविता
प्रारब्ध हमारी तय करती है,
नाते रिश्ते सारे|
समय की गाडी छूक-छूक करती,
चल पड़ती सब द्धारे|
हम चाहे कितना इतराले,
चाल चले नौलख्खा|
कर्मों का मौसम आयेगा,
नज़र दिखे भौचक्का|
प्रारब्ध हमारी हमें बुलाती,
दुश्मन चाहे कितना रोके|
घडी हमारी टिक-टिक करती,
हम चाहे कितना रोके|
जान से प्यारी धरती माँ है,
प्राण से प्यारी शेरावाली|
माँ से प्यारी बेटी रानी,
जग से न्यारी बहू हमारी|
स्वर्ग से सुन्दर धरा हमारी,
हम सब की शोभा अति प्यारी|
गलत सही सब वो तय करता,
मालिक है हम सबका|
दूर खड़ा वो हमें दिखाता,
राहें सब हम सबको|
गुजर गए जब गम के बादल,
दस्तक दी खुशियों की रिमझिम|
- मेनका
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